बड़े प्यार से खेत खलियानों में सींची गई मैं
लहर लहर कर, मस्त पवन के झोंको में पाली गई मैं
खुश हाल सी ज़िन्दगी में, खूब खिल खिलाई भी मैं
और एक दिन, उस शीत लहर के बाद, सबसे अलग हो गई मैं
होकर दूर सबसे, अलग, कहीं धूप में रही मैं
हार सूख कर, बस ऐसे ही खो सी गई मैं
पहुंची चक्की पर, सब सच्चाईयों में पिस भी गई मैं
और मसल मसल कर गूंदी हुई लोई बनी मैं
बेलन के ज़ोर के नीचे दब कर निशस्त्र पड़ी मैं
और फिर जलते तवे पर, असली ज़िन्दगी भी जीली मैं
उस आग के अंदर फूकी हुई, कुछ जलि जलि सी मैं
फिर तेज़ आंच पर भी सिकी मैं
उस गर्म कोयले की कालक में भी रंगी मैं
चिमटे की चोट खाकर कुछ नुचि नुचि सी मैं
फिर तेज़ आंच पर भी सिकी मैं
उस गर्म कोयले की कालक में भी रंगी मैं
चिमटे की चोट खाकर कुछ नुचि नुचि सी मैं
पर अंदर से अभी भी वही नरम, पर हार कर अब खत्म सी मैं.